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*आओ चलें अध्यात्म की ओर*
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*गणेश पुराण कथा*
*गिरिजा द्वारा पुण्य-व्रत का अनुष्ठान करने के वाद व्रत की समाप्ति, पुरोहित का दक्षिणा याचना*
परम साध्वी गिरिराजनन्दिनी ने पुण्यक-व्रत का आरम्भकिया और एक वर्ष तक जब-जब जिस-जिस नियम का पालन करने का विधान था, तब-तब उस-उस नियम का निष्ठापूर्वक पालन करती रहीं। धीरे-धीरे दिन खिसकते गये और व्रत पूर्ण होने के दिन निकट आते गये। अन्तिम पन्द्रह दिनों में निराहार रहने के पश्चात् व्रत पूर्ण रूप से सम्पन्न हो गया ।
व्रत समाप्त होने पर पुरोहित ने कहा- 'सुव्रते! आपका व्रत पूर्ण हो गया। अब मुझे दक्षिणा दीजिए ।'पार्वती जी ने कहा- 'द्विजवर ! आज्ञा कीजिए कि आपको दक्षिणा में क्या हूँ ? मैं आपको इच्छित दक्षिणा दूँगी। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो आपको न दी जा सके ।''देवि !' पुरोहित ने कुछ हिचकते हुए कहा- 'मेरी माँग आपको कुछ अटपटी-सी लगेगी, इसलिए सोचता हूँ कि दक्षिणा लूँ ही नहीं। किन्तु,एक द्विविधा यह भी है कि दक्षिणा न लेने से व्रतानुष्ठान का जो फल मिलना चाहिए, वह मिलेगा या नहीं ?'गौरी ने कहा- 'पुरोहितजी! कार्य की सम्पन्नता-स्वरूप दक्षिणा का दिया जाना आवश्यक होता है। फिर जो लोग देने में समर्थ न हों, उनकी बात दूसरी है, मैं तो अभीष्ट दक्षिणा देने में समर्थ हूँ, तब न देने से कार्य की पूर्ति कैसे होगी ?'पुरोहित बोले- 'देवि ! मैं इसीलिए नहीं माँगना चाहता कि कहीं आप दक्षिणा दे ही न सकें। फिर भी आपका आग्रह है तो निवेदन करता हूँ-मैं आपके पति भगवान् वृषभध्वज को दक्षिणा स्वरूप चाहता हूँ। आप उन्हीं को दक्षिणा में दे दें।'
पार्वतीजी को ऐसी दक्षिणा माँगने की आशा नहीं थी। भगवान् त्रिलोचन उनके प्राणाधार हैं, भला वह उन्हें किसी को कैसे दे सकती हैं ? फिर पुरोहित उन्हें लेकर करेंगे भी क्या ? नहीं, ये पागल तो नहीं हो गये हैं वह ?
शैलपुत्री पुरोहित की माँग पर रह-रहकर विचार करती हुई व्याकुल हो रही थीं। उनका समस्त आनन्द-उल्लास लुप्त हो गया और वे रोती-रोती मूच्छित होकर वहीं गिर गईं।
मोहनाशिनी पराम्बा को मोह-विवश एवं मूच्छित हुई देखकर समस्त उपस्थित समाज हँसने लगा। भगवान् विष्णु, कमलासन ब्रह्मा एवं दिव्य ऋषिमुनियों को भी हँसी आ गयी। तभी भगवान् श्रीहरि की प्रेरणा से उमानाथ अपनी प्राणप्रिया के पास पहुँचकर उन्हें सचेत करते हुए बोले- 'गिरिराजनन्दिनि ! उठो, पुरोहित को अभीष्ट दक्षिणा देने से
उमानाथ अपनी प्राणप्रिया के पास पहुंच कर उन्हें सचेत करते हुए बोले- 'गिरिराजनंदिनी! उठो, पुरोहितों को अभीष्ट दक्षिणा देने से ही यह अनुरोध किया जाएगा। देखो, देवकार्य, पितृकार्य एवं नित्यनैमित्तिक कर्म भी यदि दक्षिणा-संबंधित होता है तो फल-मुक्त हो जाता है। उसका कारण कर्म-कर्ता को कालसूत्र नामक नरक की प्राप्ति है। तदुपरांत उसे दीन-हीन अवस्था के साथ शत्रुओं से भी पीड़ित होना पड़ता है। इसलिए, वह सङ्कल्प की हुई दक्षिणा उसी समय दे देनी चाहिए, अन्यथा वह दक्षिणा बढ़ती हुई कई-गुनी हो जाती है।'
पार्वती जी को चेत हो गया और उन्होंने अपने पतिदेव की उक्त बातें भी सुन लीं, किन्तु सोच-विचार करती हुई मौन खड़ी रहीं। यह देखकर भगवान् विष्णु और चतुरानन ब्रह्माजी ने भी उन्हें समझाया और कहा- 'देवि ! आपके द्वारा धर्म की रक्षा किया जाना बहुत आवश्यक है।' धर्म ने भी कहा- 'शैलनन्दिनि ! आपने पुरोहित को अभीष्ट दक्षिणा देने का वचन दिया है, इसलिए उसे इच्छित प्रदान करके मेरी रक्षा कीजिए। क्योंकि मेरी रक्षा में ही सब प्रकार का मङ्गल होना निहित है।'पार्वती जी को इन्द्रादि देवताओं ने भी बहुत समझाया। जब उन्होंने कोई उत्तर न दिया तो प्रमुख ऋषि-मुनियों ने उन्हें विश्वास दिलाया - 'शिवे ! आप स्वयं ही धर्म को जानने वाली हैं, उसकी रक्षा करना आपका परम कर्त्तव्य है। फिर हम सबके यहाँ उपस्थित रहते हुए आपका किसी भी प्रकार से अकल्याण नहीं हो सकता।' इसपर भी उमा मौन रहीं।तब ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार, जो उस अनुष्ठान में पुरोहित थे, कुछ तीखे स्वर में बोले-'देवि ! या तो मुझे अभीष्ट दक्षिणा दो, अथवा आपको अपनी दीर्घकालीन तपश्चर्या का शुभ फल भी त्याग देना होगा। क्योंकि इस महान् कर्म की दक्षिणा प्राप्त न होने पर मैं इसका फल तो प्राप्त कर ही लूँगा, अन्य सब शुभ कर्मों के फल का भी मैं अधिकारी हो जाऊँगा।'
देवी पार्वती ने व्याकुलतापूर्वक कहा- 'अपने सर्व समर्थ पति से वञ्चित करने वाले कर्म के फल से मैं कोई लाभ नहीं देखती, फिर दक्षिणा देने, धर्म की रक्षा करने और पुत्रलाभ होने में भी मेरा कौन-सा हित होगा ? मूल को न सींचकर वृक्ष की शाखा को सींचने से क्या वृक्ष हरा रह सकता है विप्रवर ? यदि प्राण ही जाने लगें तो यह देह की रक्षा से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ?' 'देवाधिपो ! महर्षियो ! पति से अधिक पुत्र नहीं हो सकता। साध्वी स्त्रियों के प्राण तो पति ही है। सौ पुत्र एक ओर और अकेला पति एक'देवाधिपो ! महर्षियो ! पति से अधिक पुत्र नहीं हो सकता । साध्वी स्त्रियों के प्राण तो पति ही है। सौ पुत्र एक ओर और अकेला पति एक ओर रहे तो भी पति की ही महिमा अधिक रहेगी। आप ही बतायें कि जब पति को ही दक्षिणा में दे दूँगी तो मेरे पास क्या रहेगा ? फिर पति से वञ्चित होने पर पुत्र मिलता हो तो वह वस्तुतः किसी काम का नहीं। पुत्र का एकमात्र मूल पति ही है, क्योंकि वह उसी के अंश से उत्पन्न होता है। जब मूलधन ही चला जायेगा, तब विश्व में कोई भी व्यापार सम्भव नहीं होगा। इसलिए मैं तो यही समझती हूँ कि पुत्र के लोभ से पति का त्याग कोई गर्हिता नारी ही कर सकती हो तो करे, मैं नहीं कर सकती ।'
पार्वती इस प्रकार व्याकुल हुई बैठी थीं। वह पुरोहित की व्रत-समाप्ति की दक्षिणा स्वरूप अपना पति प्रदान करने के लिए प्रस्तुत नहीं हुई, इससे समस्त समाज में सन्नाटा छा गया था। सभी उपस्थित जन किंकर्त्तव्यविमूढ़ बैठे थे। किसी की भी समझ में यह नहीं आ रहा था कि उपस्थित समस्या को किस प्रकार सुलझाया जाय ?
*समस्या का समाधान त्रिलोकीनाथ ने किया*
उसी समय अन्तरिक्ष से एक अत्यन्त अद्भुत रत्नादि से निर्मित दिव्य रथ उतरता हुआ दिखाई दिया, जो कि घननील वर्ण के पार्षदों से घिरा था। वे सभी पार्षद रत्नालङ्कारों से सुसज्जित एवं दिव्य पुष्पहारों से समन्वित थे । देवताओं, ऋषि-मुनियों, शिवगणों आदि ने देखा कि उस रथ में भगवान् त्रिलोकीनाथ चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं, जो कि रथ से उतर उसी स्थान पर समागत हो रहे हैं। उनकी चारों भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म स्थित थे त्रिदेव समागम देखकर सभी देवता आदि उठ खड़े हुए। ब्रह्मा, विष्णु, शिव ने उन्हें अर्ध्यादि डेक पर एक सर्वोत्तम सिंहासन पर रखा और फिर सभी ने अपने अभय पाप-ताप नष्ट करने वाले बनाए पदारविंदों में भक्ति को नकारा गया और गदगद कंठ से उनकी स्तुति करने लगे।
भगवान् त्रिलोकीनाथ बोले- 'देवगण ! मुझे यहाँ उपस्थित विवाद का समाधान करने के लिए ही आना पड़ा है। गिरिराजनन्दिनी पार्वती का यह व्रत केवल लोकशिक्षा के लिए ही है, अन्यथा यह तो सभी व्रतों और तपश्चर्याओं का फल प्रदान करने में स्वयं ही समर्थ हैं। इनकी माया से समस्त चराचर विश्व मोहित हो रहा है तो यह स्वयं मोह में क्यों पड़तीं ? इसलिए इनके द्वारा किया जाने वाला अनुष्ठान अपने लिए कदापि नहीं है।'और, व्रतादि की समग्रता के ज्ञाता, वेद-वेदांगों के प्रकांड विद्वान, ईश्वर और सृष्टि के रहस्य-ज्ञान पूर्ण पारंगत तथा परम हरिभक्त और सर्वज्ञ महर्षि संतकुमार की भी अद्भुत दक्षिणा याचना का रहस्य भी सही है कि सनातन-करचा अपना पूर्ण समर्पण कर दे! वह अपना पदारविंदों में भक्ति को नकारा गया और गदगद कंठ से उनकी गिरिराजनन्दिनी पार्वती का यह व्रत केवल लोकशिक्षा के लिए ही है, अन्यथा यह तो सभी व्रतों और तपश्चर्याओं का फल प्रदान करने में स्वयं ही समर्थ हैं। इनकी माया से समस्त चराचर विश्व मोहित हो रहा है तो यह स्वयं मोह में क्यों पड़तीं ? इसलिए इनके द्वारा किया जाने वाला अनुष्ठान अपने लिए कदापि नहीं है।
'और, व्रतादि की समग्र मान्यता के ज्ञाता, वेद-वेदांगों के प्रकांड विद्वान, ईश्वर और सृष्टि के रहस्य-ज्ञान पूर्ण पारंगत तथा परम हरिभक्त और सर्वज्ञ महर्षि संतकुमार की भी अद्भुत दक्षिणा याचना का रहस्य भी यही कि व्रतानुष्ठान-कर्ता अपना पूर्ण समर्पण कर दे! वह अपना कुछ भी न समझकर छोटे परब्रह्म परमात्मा का ही समझता है। अनुष्ठान वलय वाला पुरोहित भी साक्षात परब्रह्म रूप ही है, ऐसा चित्रण हुआ ही किसी वस्तु के प्रति मोह न रहे। इसलिए इनमें से दक्षिण में व्रतानुष्ठान करने वाली कंपनी ने अपनी सबसे प्रिय वस्तु की मांग भी ली है।'
इसके पश्चात् उन्होंने गिरिराजनन्दिनी को सम्बोधित किया-'हे शिवे ! शिवप्रिये ! तुम्हें अपने पति भगवान् नीलकण्ठ को प्रदान कर पुण्यक-व्रत पूर्ण कर लेना चाहिए। नियम यह है कि दक्षिणा में प्रदत्त कोई भी पदार्थ उसका समुचित मूल्य देकर वापस लिया जा सकता है। इसलिए समुचित मूल्य देकर तुम अपने प्राणनाथ को वापस ले लेना भगवान् त्रिलोकीनाथ के शरीर जैसे शिव हैं, वैसे गौ भी हैं। इसलिए पुरोहित को अपने पति के मूल्य में गौ देकर अपना पति लौटा लेना ।'यह कहकर भगवान् त्रिलोकीनाथ तुरन्त अन्तर्धान हो गए। उनके साथ ही वह रथ और पार्षदगण भी अदृश्य हो गये। भगवान् के मुखारविन्द से सुने हुए इन वचनों ने सभी समस्या तथा समस्त विवाद सुलझा दिया, इस कारण समस्त उपस्थित समुदाय हर्ष-विभोर हो गया। शैलनन्दिनी भी हर्षित होती हुई उठीं और अपने प्राणनाथ चन्द्रमौलि को दक्षिणा में देने को तत्पर हो गईं।
पुरोहित ने हवन की पूर्णाहुति कराके दक्षिणा माँगी तो शिवा ने अपने प्राणधन शिव को दक्षिणा रूप में प्रदान कर दिया । उपस्थित जनसमूह की हर्ष-ध्वनि के मध्य महर्षि सनत्कुमार ने 'स्वस्ति' कहकर दक्षिणा ग्रहण कर ली।
*जय श्री गणेशाय नमः*
*जय मां आदिशक्ति जगदम्बा*
इन्द्रभान सक्सेना,
संस्थापक - श्री शिव पार्वती आध्यात्मिक सेवा ट्रस्ट रजि,
नाथ नगरी बरेली
दिनांक 12-05-2025
शेष कथा 13-05-2025