🌻धम्म प्रभात🌻
[ अयं वस्सान कालो ]
वर्षावास
वर्षावास विशुद्ध रूप से श्रमण संस्कृति की देन है। वर्षावास रखने का प्रावधान श्रमण संस्कृति का अभिन्न अंग है।
वर्षा ऋतु में बौद्ध भिक्खु/ भिक्खुणी अपने गुरू की निश्रा में धम्म का अध्यन और ध्यान करते है। बौद्ध लोग जिसे वर्षावास कहते है, जैन लोग उसे चतुर्मास कहते है। प्रत्येक वर्ष अषाढ पूर्णिमा से आरंभ करके कार्तिक पूर्णिमा तक वर्षावास होता है। इन चार माह में प्रथम तीन माह धम्म अध्यन और साधना के लिए होता है। अंतिम माह यानी कार्तिक का पूरा महीना पवारणा के लिए निश्चित होता है।
यह संस्कृति बुद्ध के प्रथम वर्षावास से शरू हुई थी और आज भी विद्यमान है।
किन कारणों से बुद्ध ने वर्षावास का समय अषाढ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा सुनिश्चित किया होगा?
विनय पिटक से ज्ञात होता है कि-
समस्त जंबुद्विप में वर्षा काल अषाढ से लेकर कार्तिक माह तक होता था। वर्षा होने के कारण नदी नाले में बाढ आने के कारण एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए खतरा होता था। कुछ भिक्खुओं को जान गंवानी पडी थी। विशेषकर वर्षा के दिनों में सरिसर्प आदि जीव- जन्तु बहुत निकलते थे। कभी- कभी विषैले जंतु भिक्षुओ को काट लेते थे। कई भिक्खुओ की मर जाते थे। इस कारण चारिका करना जोखिम भरा हो जाता था। भगवान ने इस समस्या को देखते हुए वर्षावास वर्षाकाल के दौरान आषाढ माह से लेकर कार्तिक माह तक चार महीनों में भिक्खु को विहार के बहार नहि जाने के लिए विनय बनाए। वर्षावास के दौरान भिक्षुओं को विहार में रहते धम्म लाभ करना, विपश्यना साधना और गृहस्थ लोगों को धम्म देशना करने का नियम बनाए।
वर्षावास परंपरा का प्रथम कारण वर्षा ऋतु था। दूसरा कारण वर्षा ऋतु में वातावरण शांत होता है और उपासकों के पास पर्याप्त मात्रा में समय भी होता है ।
तीसरा कारण- बडे भिक्खुसंघ एक गांव से दूसरे गांव, एक नगर से दूसरे नगर जाते समय खेतो में से चलना होता था। इस कारण खेत में बोए धन धान्य को नुकसान होता था। किसान खेती में नुकसान न हो उसका ख्याल रखते हुए भी भिक्खुसंघ चारिका नहि करते थे।
आषाढ पूर्णिमा को विश्व में बौद्ध भिक्खु अपने-अपने विहारों में या फिर किसी निश्चित विहार में तीन माह तक एक ही स्थान पर रहने का संकल्प लेते है। भिक्षु यह अधिष्ठान निम्न वचनों के साथ आरम्भ करते है-
" इमस्मिं विहारे इमं ते मासं वस्सं उपेमि अधिट्ठामि। "
अधिष्ठान करने के पहले विहार के उपासक/ उपासिकाएं उस भिक्षु को वर्षाकालीन स्नान- साटिका देते है। उस समय इन शब्दों को दोहराना पडता है-
" इमं वस्सिका साटिका वस्सु पनसाय देम ।"
अनाज रस (ठोस आहार) को छोड शेष सभी प्रकार के फल रसों की भगवान ने अनुज्ञा दी ,लेकिन ढाक के पत्तों के रस, महुवे के पुष्प रस को लेने के लिए इजाजत नहि दी थी।
वर्षावास के तीन माह पूरा होते आश्विन पूर्णिमा का दिन पवारणा के नाम से मनाया जाता है।। आश्विन पूर्णिमा को क्वार पूर्णिमा भी कहते है। आश्विन पूर्णिमा से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक भिक्खुओं का सत्कार होता है। भिक्षुओं को 'अष्ठपरिक्खार' देने का उत्सव आयोजित होता है। भिक्षुओं को आठ वस्तुओं दी जाती थी।
1) अन्तर - वासक
2) उत्तरासंग
3) संघाटी
4) भिक्खापात्र
5) कमरपट्टा
6) उस्तरा
7) सुई धागा
8) परिश्रावण ( पानी छानने का वस्त्र)
कठीन चीवर दान का महोत्सव भारत में भी मनाया जाता है। उपासक/ उपासिकाओं के लिए दान पारमीता का लाभ प्राप्त करने का अवसर कठीन चीवर दान से प्राप्त होता है।
आधुनिक युग में उपरोक्त आठ वस्तुओं के उपरांत भिक्षु के उपयोग की चीज वस्तुओं का दान होता है।
नमो बुद्धाय🙏🙏🙏
10.07.2025